Section 23 Contract Act 1872

 

Section 23 Contract Act 1872 in Hindi and English 



Section 23 Contract Act 1872 :What consideration and objects are lawful, and what not - The consideration or object of an agreement is lawful, unless -

it is forbidden by law; or

is of such a nature that, if permitted, it would defeat the provisions of any law; or is fraudulent; or

involves or implies, injury to the person or property of another; or

the Court regards it as immoral, or opposed to public policy.

In each of these cases, the consideration or object of an agreement is said to be unlawful. Every agreement of which the object or consideration is unlawful is void.

Illustrations

(a) A agrees to sell his house to B for 10,000 rupees. Here, B's promise to pay the sum of 10,000 rupees is the consideration for A's promise to sell the house and A's promise to sell the house is the consideration for B's promise to pay the 10,000 rupees. These are lawful considerations.

(b) A promises to pay B 1,000 rupees at the end of six months, if C, who owes that sum to B, fails to pay it. B promises to grant time to C accordingly. Here, the promise of each party is the consideration for the promise of the other party, and they are lawful considerations.

(C) A promises, for a certain sum paid to him by B, to make good to B the value of his ship if it is wrecked on a certain voyage. Here, A's promise is the consideration for B's payment, and Bš payment is the consideration for A's promise, and these are lawful considerations

(d) A promises to maintain B's child, and B promises to pay A 1,000 rupees yearly for the purpose. Here, the promise of each party is the consideration for the promise of the other party. They are lawful considerations.

(e) A, B and Center into an agreement for the division among them of gains acquired or to be acquired, by them by fraud. The agreement is void, as its object is unlawful.

(f) A promises to obtain for B an employment in the public service and B promises to pay 1,000 rupees to A. The agreement is void, as the consideration for it is unlawful.

(g) A, being agent for a landed proprietor, agrees for money, without the knowledge of his principal, to obtain for B a lease of land belonging to his principal. The agreement between A and B is void, as it implies a fraud by concealment, by A, on his principal.

(h) A promises B to drop a prosecution which he has instituted against B for robbery, and B promises to restore the value of the things taken. The agreement is void, as its object is unlawful.

(i) A's estate is sold for arrears of revenue under the provisions of an Act of the Legislature, by which the defaulter is prohibited from purchasing the estate. B, upon an understanding with A, becomes the purchaser, and agrees to convey the estate to A upon receiving from him the price which B has paid. The agreement is void, as it renders the transaction, in effect, a purchase by the defaulter and would so defeat the object of the law.

(j) A, who is B's mukhtar, promises to exercise his influence, as such, with B in favour of C, and C promises to pay 1,000 rupees to A. The agreement is void, because it is immoral.

(k) A agrees to let her daughter to hire to B for concubinage. The agreement is void,



Supreme Court of India Important Judgments And Case Law Related to Section 23 of Contract Act 1872 :

Gurpreet Singh vs Union Of India on 19 October, 2006

Gurpreet Singh vs Union Of India on 19 October, 2006

K.Nagamalleshwara Rao And Ors vs State Of Andhra Pradesh on 14 March, 1991

Gherulal Parakh vs Mahadeodas Maiya And Others on 26 March, 1959

Delhi Transport Corporation vs D.T.C. Mazdoor Congress on 4 September, 1990

Firm Of Pratapchand Nopaji vs Firm Of Kotrike Venkatta Setty & on 12 December, 1974

Gurmukh Singh vs Amar Singh on 15 March, 1991

Pasl Wind Solutions Private vs Ge Power Conversion India Private on 20 April, 2021

Sunil Pannalal Banthia & Ors vs City And Industrial Development on 8 March, 2007

City Indl.Devept. Th:Mng vs Platinum Entertainment & Ors on 26 September, 2014



भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 23 का विवरण :  -  कौन से प्रतिफल और उद्देश्य विधिपूर्ण हैं और कौन से नहीं -- करार का प्रतिफल या उद्देश्य विधिपूर्ण है, सिवाय जब कि --

वह विधि द्वारा निषिद्ध हो;

अथवा वह ऐसी प्रकृति का हो कि यदि वह अनुज्ञात किया जाए तो वह किसी विधि के उपबन्धों को विफल कर देगा; अथवा वह कपटपूर्ण हो;

अथवा उसमें किसी अन्य के शरीर या सम्पत्ति को क्षति अन्तर्वलित या विवक्षित हो;

अथवा न्यायालय उसे अनैतिक या लोकनीति के विरुद्ध माने ।

इन दशाओं में से हर एक में करार का प्रतिफल या उद्देश्य विधिविरुद्ध कहलाता है। हर एक करार, जिसका उद्देश्य या प्रतिफल विधिविरुद्ध हो, शून्य है।

दृष्टान्त

(क) 'क' अपना गृह 10,000 रुपये में ‘ख’ को बेचने का करार करता है। यहाँ 10,000 रुपये देने का 'ख' का वचन गृह बेचने के ‘क’ के वचन के लिए प्रतिफल है और गृह बेचने का 'क' का वचन 10,000 रुपये देने के 'ख' के वचन के लिए प्रतिफल है। ये विधिपूर्ण प्रतिफल है।

(ख) 'क' यह वचन देता है कि यदि 'ग', जिसे ‘ख’ को 1,000 रुपये देना है उसे देने में असफल रहा तो वह ख' को छः मास के बीतते ही 1,000 रुपये देगा। 'ख' तदनुसार 'ग' को समय देने का वचन देता है। यहाँ हर एक पक्षकार का वचन दूसरे पक्षकार के लिए प्रतिफल है और ये विधिपूर्ण प्रतिफल है।

(ग)'ख' द्वारा उसे दी गई किसी राशि के बदले ‘क’ यह वचन देता है कि यदि 'ख' का पोत अमुक समुद्र यात्रा में नष्ट हो जाए तो ‘क’ उसके पोत के मूल्य की प्रतिपूर्ति करेगा। यहाँ 'क' का वचन 'ख' के संदाय के लिए प्रतिफल है, और 'ख' का संदाय 'क' के वचन के लिए प्रतिफल है; और ये विधिपूर्ण प्रतिफल है।

(घ) ‘ख’ के बच्चे का भरण-पोषण करने का 'क' वचन देता है और 'ख' उस प्रयोजन के लिए 'क' को 1,000 रुपये वार्षिक देने का वचन देता है। यहाँ हर एक पक्षकार का वचन दूसरे पक्षकार के वचन के लिए प्रतिफल है। ये विधिपूर्ण प्रतिफल है।

(ङ) 'क', 'ख' और 'ग' अपने द्वारा कपट से अर्जित किए गए या किए जाने वाले अभिलाभों के आपस में विभाजन के लिए करार करते हैं। करार शून्य है क्योंकि उसका उद्देश्य विधिविरुद्ध है।

(च) “ख' के लिए लोक-सेवा में नियोजन अभिप्राप्त करने का वचन ‘क’ देता है और ‘क’ को ‘ख’ 1,000 रुपये देने का वचन देता है। करार शून्य है क्योंकि उसके लिए प्रतिफल विधिविरुद्ध है।

(छ) ‘क’, जो एक भू-स्वामी के लिए अभिकर्ता है, अपने मालिक के ज्ञान के बिना, अपने मालिक की भूमि का एक पट्टा 'ख' के लिए अभिप्राप्त करने का करार धन के लिए करता है। 'क' और 'ख' के बीच का करार शून्य है। क्योंकि उससे यह विवक्षित है कि 'क' ने अपने मालिक से छिपाव द्वारा कपट किया है।

(ज) 'क' उस अभियोजन को, जो उसने लूट के बारे में ‘ख’ के विरुद्ध संस्थित किया है, छोड़ देने का ‘ख’ को वचन देता है और 'ख' दी गई चीजों का मूल्य लौटा देने का वचन देता है। करार शून्य है क्योंकि उसका उद्देश्य विधिविरुद्ध है।

(झ) 'क' की सम्पदा का राजस्व बकाया के लिए विक्रय विधान-मण्डल के एक ऐसे अधिनियम के उपबंधों के अधीन किया जाता है, जो व्यतिक्रम करने वाले को वह भू-सम्पदा खरीदने से प्रतिषिद्ध करता है। ‘क’ के साथ बात तय करके 'ख' क्रेता बन जाता है और यह करार करता है कि वह 'क' से वह कीमत मिलने पर, जो 'ख' ने दी है, वह सम्पदा 'क' को हस्तान्तरित कर देगा। करार शून्य है, क्योंकि उसका यह प्रभाव हैं कि वह संव्यवहार व्यतिक्रम करने वाले द्वारा किया गया क्रय बन जाता है और उस प्रकार उससे विधि का उद्देश्य विफल हो जाएगा।

(ज) 'क', जो 'ख' का मुख्तार है, उस असर को जो उस हैसियत में उसका 'ख' पर है, 'ग' के पक्ष में प्रयुक्त करने का वचन देता है और 'क' को 1,000 रुपये देने का वचन ‘ग देता है। करार शून्य है, क्योंकि यह अनैतिक है।

(ट) 'क' जो अपनी पुत्री को उपपत्नी के रूप में रखे जाने के लिए 'ख' को भाड़े पर देने के लिए करार करता है। करार शून्य है क्योंकि वह अनैतिक है, यद्यपि इस प्रकार भाड़े पर दिया जाना भारतीय दण्ड संहिता (1860 का 45) के अधीन दण्डनीय न हो।


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