Section 212 Contract Act 1872
Section 212 Contract Act 1872 in Hindi and English
Section 212 Contract Act 1872 :Skill and diligence required from agent - An agent is bound to conduct the business of the agency with as much skill as is generally possessed by persons engaged in similar business unless the principal has notice of this want of skill. The agent is always bound to act with reasonable diligence, and to use such skill as he possesses; and to make compensation to his principal in respect of the direct consequences of his own neglect, want of skill, or misconduct, but not in respect of loss or damage which are indirectly or remotely caused by such neglect, want of skill, or misconduct.
Illustrations
(a) A, a merchant in Calcutta, has an agent, B, in London, to whom a sum of money is paid on A's account, with orders to remit. B retains the money for a considerable time. A, in consequence of not receiving the money, becomes insolvent. B is liable for the money and interest, from the day on which it ought to have been paid, according to the usual rate, and for any further direct loss - as, e.g., by variation of rate of exchange - but not further.
(b) A, an agent for the sale of goods, having authority to sell on credit, sells to B on credit, without making the proper and usual enquiries as to the solvency of B. B at the time of such sale is insolvent. A must make compensation to his principal in respect of any loss thereby sustained.
(C) A, an insurance-broker employed by B to effect an insurance on a ship, omits to see that the usual clauses are inserted in the policy. The ship is afterwards lost. In consequence of the omission of the clauses nothing can be recovered from the underwriters. A is bound to make good the loss to B.
(d) A, a merchant in England, directs B, his agent at Bombay, who accepts the agency, to send him 100 bales of cotton by a certain ship. B, having it in his power to send the cotton, omits to do so. The ship arrives safely in England. Soon after her arrival, the price of cotton rises. B is bound to make good to A the profit which he might have made by the 100 bales of cotton at the time of ship arrived, but not any profit he might have made by the subsequent rise
Supreme Court of India Important Judgments And Case Law Related to Section 212 of Contract Act 1872 :
Jayabharathi Corporation vs Sv. P.N. Sn. Rajesekara Nadar on 4 December, 1991
Pannalal Jankidas vs Mohanlal And Another on 21 December, 1950
भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 212 का विवरण : - अभिकर्ता से अपेक्षित कौशल और तत्परता -- अभिकर्ता अभिकरण के कारबार का संचालन उतने कौशल से करने के लिए आबद्ध है जितना वैसे कारबार में लगे हुए व्यक्तियों में साधारणत: होता है, जब तक कि मालिक को उसके कौशल के अभाव की सूचना न हो। अभिकर्ता सदा ही युक्तियुक्त तत्परता से कार्य करने के लिए और उसका जितना कौशल है उसे उपयोग में लाने के लिए और अपनी स्वयं की उपेक्षा, कौशल के अभाव या अवचार के प्रत्यक्ष परिणामों की बाबत्। अपने मालिक को प्रतिकर देने के लिए आबद्ध है, किन्तु ऐसी हानि या नुकसान की बाबत् नहीं जो ऐसी उपेक्षा, कौशल के अभाव या अवचार में अप्रत्यक्षतः या दूरस्थतः कारित हो।
दृष्टान्त
(क) कलकत्ते के एक वणिक 'क' का एक अभिकर्ता ‘ख’ लन्दन में है जिसे 'ख' के लेखे में कुछ धन इस आदेश के साथ दिया जाता है कि वह उसे भेज दे। ‘ख’ उस धन को बहुत समय तक रखे रखता है। उस धन के न मिलने के फलस्वरूप ‘क’ दिवालिया हो जाता है। ‘ख’ उस धन के लिए और जिस तारीख को वह दे दिया जाना चाहिए था उस तारीख से प्रायिक दर पर, ब्याज के लिए और किसी प्रत्यक्ष हानि के लिए, उदाहरणार्थ विनिमय दर में फेरफार के लिए दायी है; किन्तु इससे अतिरिक्त के लिए नहीं।
(ख) माल के विक्रय के लिए एक अभिकर्ता 'क', जिसे उधार बेचने का प्राधिकार है, ‘ख’ की शोधनक्षमता के बारे में उचित और प्रायिक जाँच किए बिना ‘ख’ को उधार मेल बेचता है। इस विक्रय के समय ‘ख’ दिवालिया है। उससे हुई हानि के लिए 'क' अपने मालिक को प्रतिकर देगा।
(ग) पोत का बीमा करने के लिए 'ख' द्वारा नियोजित एक बीमा-दलाल 'क' इस बात का ध्यान रखने का लोप करता है कि बीमे की पॉलिसी में वे उपबन्ध रखें जाएँ, जो प्रायः रखे जाते हैं, तत्पश्चात् पोत नष्ट हो जाता है। उन उपबन्धों के न होने के परिणामस्व निम्नांक्कों से कुछ वसूल नहीं किया जा सकता। ‘ख’ की उस हानि की प्रतिपूर्ति करने के लिए 'क' आबद्ध है
(घ) इंग्लैण्ड का एक वणिक 'क', मुम्बई के अपने अभिकर्ता ‘ख’ को, जिसने अभिकरण प्रतिग्रहीत किया है, रूई की 100 गांठे अमुक पोत में अपने को भेजने का निर्देश देता है। ‘ख’ की शक्ति में यह बात थी कि वह रूई भेज दे । किन्तु वह ऐसा करने का लोप करता है। वह पोत सकुशल इंग्लैण्ड पहुँच जाता है। उसके पहुँचने के तुरन्त पश्चात् रूई की कीमत चढ़ जाती है। ‘ख’ लाभ की प्रतिपूर्ति 'क' के प्रति करने को आबद्ध है जो 'क' रूई की उन 100 गांठों में से उस समय कमाता जिस समय पोत पहुँचा किन्तु इस लाभ की पूर्ति के लिए नहीं जो पश्चात्वर्ती बढ़ोतरी के कारण होता।
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