Section 116 CrPC
Section 116 CrPC in Hindi and English
Section 116 of CrPC 1973 :- 116. Inquiry as to truth of information - (1) When an order under section 111 has been read or explained under section 112 to a person present in Court, or when any person appears or is brought before a Magistrate in compliance with, or in execution of, a summons or warrant, issued under section 113, the Magistrate shall proceed to inquire into the truth of the information upon which action has been taken and to take such further evidence as may appear necessary.
(2) Such inquiry shall be made, as nearly as may be practicable, in the manner hereinafter prescribed for conducting trial and recording evidence in summons-cases.
(3) After the commencement and before the completion, of the inquiry under subsection (1), the Magistrate, if he considers that immediate measures are necessary for the on of a breach of the peace or disturbance of the public tranquillity or the commission of any offence or for the public safety, may, for reasons to be recorded in writing, direct the person in respect of whom the order under section 111 has been made to execute a bond, with or without sureties, for keeping the peace or maintaining good behaviour until the conclusion of the inquiry and may detain him in custody until such bond is executed or, in default of execution, until the inquiry is concluded :
Provided that--
(a) no person against whom proceedings are not being taken under section 108, section 109, or section 110 shall be directed to execute a bond for maintaining good behaviour;
(b) the conditions of such bond, whether as to the amount thereof or as to the provision of sureties or the number thereof or the pecuniary extent of their liability, shall not be more onerous than those specified in the order under section 111.
(4) For the purposes of this section, the fact that a person is a habitual offender or is so desperate and dangerous as to render his being at large without security hazardous to the community may be proved by evidence of general repute or otherwise.
(5) Where two or more persons have been associated together in the matter under inquiry, they may be dealt with in the same or separate inquiries as the Magistrate shall think just.
(6) The inquiry under this section shall be completed within a period of six months from the date of its commencement and if such inquiry is not so completed, the proceedings under this Chapter shall, on the expiry of the said period, stand terminated unless, for special reasons to be recorded in writing, the Magistrate otherwise directs :
Provided that where any person has been kept in detention pending such inquiry, the proceeding against that person, unless terminated earlier, shall stand terminated on the expiry of a period of six months of such detention.
(7) Where any direction is made under sub-section (6) permitting the continuance of proceedings, the Sessions Judge may, on an application made to him by the aggrieved party vacate such direction if he is satisfied that it was not based on any special reason or was perverse.
Supreme Court of India Important Judgments And Case Law Related to Section 116 of Criminal Procedure Code 1973:
Jagdish vs State Of U.P. And Ors on 14 May, 2008
Madhu Limaye vs Sub-Divisional Magistrate, on 28 October, 1970
Keshardeo Chamria vs Radha Kissen Chamria And on 30 October, 1952
Madhu Limaye & Anr vs Ved Murti & Ors on 28 October, 1970
Brij Nandan Jaiswal vs Munna @ Munna Jaiswal & Anr on 19 December, 2008
Dr. Monica Kumar & Anr vs State Of U. P. & Ors on 27 May, 2008
Dr.Mehmood Nayyar Azam vs State Of Chattisgarh And Ors on 3 August, 2012
Govind And Others vs State Of M.P on 25 November, 1993
Gyatri & Ors vs Ranjit Singh & Ors on 13 February, 2008
Dagdu vs State Of Madhya Pradesh on 3 September, 1997
दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 116 का विवरण : - 116. इत्तिला की सच्चाई के बारे में जाँच -- (1) जब धारा 111 के अधीन आदेश किसी व्यक्ति को, जो न्यायालय में उपस्थित है, धारा 112 के अधीन पढ़कर सुना या समझा दिया गया है अथवा जब कोई व्यक्ति धारा 113 के अधीन जारी किए गए समन या वारन्ट के अनुपालन या निष्पादन में मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिर है या लाया जाता है तब मजिस्ट्रेट उस इत्तिला की सच्चाई के बारे में जाँच करने के लिए अग्रसर होगा जिसके आधार पर वह कार्यवाही की गई है और ऐसा अतिरिक्त साक्ष्य ले सकता है जो उसे आवश्यक प्रतीत हो ।
(2) ऐसी जाँच यथासाध्य, उस रीति से की जाएगी जो समन-मामलों के विचारण और साक्ष्य के अभिलेखन के लिए इसमें इसके पश्चात् विहित है।
(3) उपधारा (1) के अधीन जाँच प्रारम्भ होने के पश्चात् और उसकी समाप्ति से पूर्व यदि मजिस्ट्रेट समझता है कि परिशान्ति भंग का या लोक प्रशांति विक्षुब्ध होने का या किसी अपराध के किए जाने का निवारण करने के लिए, या लोक सुरक्षा के लिए तुरन्त उपाय करने आवश्यक हैं, तो वह ऐसे कारणों से, जिन्हें लेखबद्ध किया जाएगा, उस व्यक्ति को, जिसके बारे में धारा 111 के अधीन आदेश दिया गया है निदेश दे सकता है कि वह जाँच समाप्त होने तक परिशान्ति कायम रखने और सदाचारी बने रहने के लिए प्रतिभुओं सहित या रहित बन्धपत्र निष्पादित करे और जब तक ऐसा बंधपत्र निष्पादित नहीं कर दिया जाता है, या निष्पादन में व्यतिक्रम होने की दशा में जब तक जाँच समाप्त नहीं हो जाती है, उसे अभिरक्षा में निरुद्ध रख सकता है :
परन्तु--
(क) किसी ऐसे व्यक्ति को, जिसके विरुद्ध धारा 108, धारा 109 या धारा 110 के अधीन कार्यवाही नहीं की जा रही है, सदाचारी बने रहने के लिए बंधपत्र निष्पादित करने के लिए निदेश नहीं दिया जाएगा;
(ख) ऐसे बन्धपत्र की शर्ते, चाहे वे उसकी रकम के बारे में हों या प्रतिभू उपलब्ध करने के या उनकी संख्या के, या उनके दायित्व की धन संबंधी सीमा के बारे में हों, उनसे अधिक दुर्भर न होंगी जो धारा 111 के अधीन आदेश में विनिर्दिष्ट हैं।
(4) इस धारा के प्रयोजनों के लिए यह तथ्य कि कोई व्यक्ति आभ्यासिक अपराधी है या ऐसा दुःसाहसिक और भयंकर है कि उसका प्रतिभूति के बिना स्वच्छन्द रहना समाज के लिए परिसंकटमय है, साधारण ख्याति के साक्ष्य से या अन्यथा साबित किया जा सकता है।
(5) जहाँ दो या अधिक व्यक्ति जांच के अधीन विषय में सहयुक्त रहे हैं वहाँ मजिस्ट्रेट एक ही जांच या जांचों में जैसा वह न्यायसंगत समझे, उनके बारे में कार्यवाही कर सकता है।
(6) इस धारा के अधीन जांच उसके आरंभ की तारीख से छह मास की अवधि के अंदर पूरी की जाएगी, और यदि जांच इस प्रकार पूरी नहीं की जाती है तो इस अध्याय के अधीन कार्यवाही उक्त अवधि की समाप्ति पर, पर्यवसित हो जाएगी जब तक विशेष कारणों के आधार पर, जो लेखबद्ध किए जाएंगे, मजिस्ट्रेट अन्यथा निदेश नहीं करता है :
परन्तु जहाँ कोई व्यक्ति, ऐसी जांच के लम्बित रहने के दौरान निरुद्ध रखा गया है वहाँ उस व्यक्ति के विरुद्ध कार्यवाही, यदि पहले ही पर्यवसित नहीं हो जाती है तो ऐसे निरोध के छह मास की अवधि की समाप्ति पर पर्यवसित हो जाएगी।
(7) जहाँ कार्यवाहियों को चालू रखने की अनुज्ञा देते हुए उपधारा (6) के अधीन निदेश किया जाता है, वहाँ सेशन न्यायाधीश व्यथित पक्षकार द्वारा उसे किए गए आवेदन पर ऐसे निदेश को रद्द कर सकता है, यदि उसका समाधान हो जाता है कि वह किसी विशेष कारण पर आधारित नहीं था या अनुचित था।
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