Mohri Bibi Case Law of Contract | मोहरी बीबी बनाम धर्मदास घोष
मोहरी बीबी बनाम धर्मदास घोष
भूमिका
यह प्रकरण भारतीय संविदा अधिनियम 1872 की धारा 11 से संबंधित है इसमें न्यायालय के समक्ष मुख्य विचारणीय बिंदु यह था कि क्या अवयस्क व्यक्ति द्वारा की गई संविदा शून्य होती है एवं क्या ऐसे व्यक्ति को ऋण स्वरूप दिया गया बंधक धन पुनः प्राप्त किया जा सकता है
तथ्य
इस मामले में वादी प्रत्यरथी धर्मदास घोष हावड़ा का निवासी था। वह अवयस्क था तथा उसकी माता जगेन्दर नंदिनी उसकी संरक्षिका थी हावड़ा में उसकी काफी चल एवं अचल संपत्ति थी वही ब्रह्मदत्त नाम का एक साहूकार रहता था जिसके सभी सम व्यवहार एक अटार्नी केदारनाथ के माध्यम से किए जाते थे सत्यार्थी धरमदास दवारा एक व्यक्ति केदारनाथ के माध्यम से अपनी कुछ संपत्ति ब्रह्म दत्त के पास बंधक रखकर ₹20000 का ऋण प्राप्त किया गया उस समय चूंकि धर्मदास अवयस्क था इसलिए उसकी माता ने अपने अधिवक्ता के माध्यम से केदारनाथ को इस आशय का एक नोटिस भेजा कि धरमदास चूंकि अवयस्क है इसलिए उसके साथ किसी प्रकार का व्यवहार नहीं किया जाए उधर केदारनाथ ने एक दस्तावेज तैयार कर यह घोषणा करते हुए कि धरमदास दिनांक 17 अगस्त 18 95 को वयस्क हो गया है। उस दस्तावेज पर धर्मदास के हस्ताक्षर करा लिए धर्मदास को ₹8000 तो पहले ही दे दिए गए थे तथा शेष ₹12000 उसके व्यस्क होने पर उसे दे दिए गए इस पर धर्मदास की माता ने वाद मित्र के रूप में दिनांक 10 - 9-1895 को एक वाद इस आश्य का दायर किया कि चूंकि धरमदास अवयस्क है इसलिए ब्रह्मदत्त के पक्ष में उसके द्वारा किया गया बंधक शून्य है और उसे रद्द किया जाए
प्रतिवादी ब्रह्मदत्त की ओर से न्यायालय के समक्ष यह तर्क प्रस्तुत किए गए कि
1. बंधन व्यवहार के समय धर्मदास घोष अवयस्क नहीं था और ना ही वादी की ओर से इस आश्य का कोई नोटिस प्रतिवादी को दिया गया था
2. बंधक सम व्यवहार के समय धर्मदास घोष द्वारा अपने आपको व्यस्क होना निरूपित किया गया था इसलिए अब उसकी ओर से अवयस्कता के आधार पर वाद नहीं लाया जा सकता क्योंकि यह साक्ष्य अधिनियम की धारा 115 के अंतर्गत एस्टोपल है या विबंधित है।
3. अवयस्क द्वारा की गई संविदा शून्य नहीं होकर शून्यकरनीय होती है होती है और ऐसी संविदा के अधीन प्रदत धन को संविदा अधिनियम की धारा 64 एवं 65 के अंतर्गत पुनः प्राप्त किया जा सकता है।
विचारण न्यायालय द्वारा दोनों पक्षों को सुनवाई का अवसर प्रदान करने के बाद यह निर्णय लिया गया कि धर्मदास घोष बंधक सम व्यवहार के समय अवयस्क था इसलिए वह संविदा शून्य घोषित किए जाने योग्य है प्रतिवादी ब्रह्म दत्त द्वारा उक्त निर्णय के विरुद्ध कोलकाता उच्च न्यायालय में अपील प्रस्तुत की गई उच्च न्यायालय द्वारा अपील खारिज कर दी गई इस पर Privy Council में यह द्वितीय अपील प्रस्तुत की गई उसी दौरान ब्रह्म दत्त की मृत्यु हो जाने से उसके स्थान पर उसकी पत्नी मोहरी बीबी अपीलारथी बनी।
निर्णय
प्रिवी कौंसिल के समक्ष विचारणीय बिंदु मुख्य रूप से निम्नांकित थे
1. क्या अवयस्क व्यक्ति द्वारा की गई संविदा शून्य नहीं होकर शुन्यकरनीय होती है।
2. क्या ब्रह्मदत्त के अटार्नी केदारनाथ की प्राप्त जानकारी को ब्रह्मदत्त पर अभ्यारोपित किया जा सकता है।
3. क्या धर्मदास घोष द्वारा अपने आपको व्यस्क निरूपित करते हुए किए गए सम्व्यवहार के कारण जब उसकी ओर से वाद लाया जाना साक्ष्य अधिनियम की धारा 115 द्वारा विबंधित है।
4. क्या संविदा अधिनियम की धारा 64 एवं 65 के अंतर्गत साम्या के सिद्धांतों के अनुसार बंधक धन को पुनः प्राप्त किया जा सकता है।
प्रिवी कौंसिल द्वारा यह भी निर्धारित किया गया कि भारतीय संविदा अधिनियम 1872 की धारा 11 में यह स्पष्ट प्रावधान किया गया है कि अवयस्क के साथ की गई संविदा शून्य होती है ना कि शून्यकरनीय । विधि मान्य संविदा के लिए संविदा करते समय पक्षकारों का सक्षम होना आवश्यक है अटार्नी केदारनाथ चूंकि ब्रह्मदत्त के अभिकर्ता के रूप में कार्य कर रहा था और वह ब्रह्मदत्त की ओर से संवाद करने के लिए प्राधिकृत था इसलिए उसको प्राप्त जानकारी को ब्रह्म दत्त की जानकारी माना जाना विधि नुकूल है इस मामले में साक्ष्य अधिनियम की धारा 115 में यथा वर्णित निबंध का सिद्धांत तथा संविदा अधिनियम की धारा 64 एवं 65 में यथा वर्णित साम्या का सिद्धांत लागू नहीं होता है क्योंकि दोनों पक्ष कार सत्यता से अन्यभिज्ञ नहीं थे और न ही संविदा करने के लिए सक्षम।
इस प्रकार पृवी काउंसिल द्वारा अपील आर्थी की अपील को सव्यय खारिज किया गया निर्णय सर फोर्ड नार्थ द्वारा उद् घोषित किया गया।
विधि के सिद्धांत
इस मामले में प्रिवी कौंसिल द्वारा विधि के निम्नांकित सिद्धांत प्रतिपादित किए गए
1. अवयस्क व्यक्ति के साथ की गई संविदा शून्यकरनीय नहीं होकर शुरू से ही शून्य होती है।
2. ऐसी संविदा के अंतर्गत प्रदत धन को संविदा अधिनियम के अंतर्गत साम्य के सिद्धांतों के आधार पर पुनः प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
3. अभिकर्ता को दी गई सूचना उसके मालिक को दी गई सूचना मानी जाती है।
4. साक्ष्य अधिनियम की धारा 115 में प्रतिपादित निबंध का सिद्धांत ऐसे मामलों में लागू होता है जहां एक पक्ष के मिथ्या व्यप देशन पर दूसरे पक्षकार ने विश्वास करते हुए कोई कार्य किया हो जहां दूसरा पक्ष कार सत्यता थे से अवगत रहा हो वहां विबंध का सिद्धांत लागू नहीं होता है।
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