Seth Hukumchand vs Maharaj Bahadur Singh | सेठ हुकुमचंद बनाम महाराज बहादुर सिंह
Seth Hukumchand vs Maharaj Bahadur Singh | सेठ हुकुमचंद बनाम महाराज बहादुर सिंह
भूमिका
यह प्रकरण सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के आदेश 1 नियम 8 से संबंधित है। इसमें पूजा के अधिकार की घोषणा का प्रश्न अंतर् वलित था।
तथ्य
प्रकरण के तथ्य संक्षेप में इस प्रकार हैं सन 1918 में श्वेतांबर जैन समाज ने पर्वतों पर स्थित संपत्ति तीर्थ स्थान आदि पालगंज के राजा से खरीद कर उस पर अपना स्वामित्व स्थापित किया समाज ने उस पर पुजारियों नौकरों एवं यात्रियों के लिए कुछ मकान एवं धर्मशाला बनाई तथा संतरियों व चौकीदारों की नियुक्ति की श्वेतांबर जैन समाज ने वहां एक दरवाजा बनाने की योजना भी बनाई ताकि यात्री आदि पर्वत पर आसानी से जा सके दिगंबर जैन समाज ने इस दरवाजे (फाटक) पर आपत्ति की। उनका यह कहना था कि श्वेतांबर जैन समाज वाले दरवाजा बना कर दिगंबर जैन समाज के मार्ग के उपयोग में व्यवधान पैदा करना चाहते हैं दिगंबर जैन समाज की ओर से सन 1920 में श्वेतांबर जैन समाज के विरुद्ध सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के आदेश 1 नियम 8 के अंतर्गत एक वाद दायर किया।
वाद में यह कहा गया कि पर्वत का प्रत्येक पत्थर पवित्र है यहां मकान एवं धर्मशाला बनाकर उसे अपवित्र नहीं किया जा सकता है उत्तर में यह कहा गया कि वादी दिगंबर जैन समाज ने पवित्रता की बात बढ़ा चढ़ा कर कहे हैं जैन शास्त्रों में पर्वत पर मकान बनाकर रहने पर कोई आपत्ति नहीं बताई गई है।
रांची के विचारण न्यायालय द्वारा यह निर्णय लिया गया कि वादग्रस्त संपत्ति जनों की न्यास की संपत्ति है और उसकी पवित्रता को अक्षुण्ण बनाए रखने का उन्हें अधिकार है इस प्रकार विचारण न्यायालय द्वारा वादी- दिगंबर जैन समाज का वाद डिक्री किया गया उक्त निर्णय के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की गई अपील स्वीकार करते हुए उच्च न्यायालय द्वारा यह भी निर्धारित किया गया कि पर्वत जैन समाज की न्यास संपत्ति नहीं है यह संपत्ति श्वेतांबर जैन समाज द्वारा सन 1918 में पालगंज के राजा से क्रय की गई थी श्वेतांबर समाज को उस पर निर्माण कार्य करने का अधिकार था इससे दिगंबर जैन समाज के पूजा व मार्ग अधिकार पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है उच्च न्यायालय की उक्त निर्णय के विरुद्ध पृवी काउंसिल में दिगंबर जैन समाज द्वारा अपील की गई।
निर्णय
प्रिवी कौंसिल मे अपीलार्थी की ओर से यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि पाश्र्व नाथ पर्वत एक पवित्र स्थान है उन्हें वहां पूजा करने का अधिकार है साथ ही वे वहां पर निर्माण कार्य को रुकवाने का अधिकार भी रखते हैं पर्वत की संपत्ति न्यास संपत्ति है किसी की व्यक्तिगत संपत्ति नहीं श्वेतांबर जैन समाज को यहां निर्माण कार्य करा कर मंदिर की पवित्रता को समाप्त करने तथा मार्ग को रोकने का कोई अधिकार नहीं है।
प्रत्यर्थी श्वेतांबर जैन समाज की ओर से उत्तर में यह कहा गया कि विवाद ग्रस्त संपत्ति श्वेतांबर जैन समाज द्वारा पालगंज के राजा से खरीदी गई थी इसलिए उसे उस पर निर्माण कार्य कराने का पूर्ण अधिकार है ऐसे निर्माण से दिगंबर जैन समाज की मार्ग अधिकार में कोई व्यवधान उत्पन्न नहीं होता है साथ ही वाद अवधिरुद्ध होने से चलने योग्य नहीं है
प्रिवी कौंसिल द्वारा दोनों पक्षों के तर्कों पर गंभीरता से विचार किया गया प्रिवी कौंसिल यह अभि निर्धारित किया गया कि-
1. विवाद ग्रस्त संपत्ति श्वेतांबर जैन समाज द्वारा पालगंज के राजा से खरीदी गई थी इसलिए उसे यहां की संपत्ति नहीं माना जा सकता विचारण न्यायालय ने इसे न्यास की संपत्ति इसलिए माना क्योंकि यहां स्थित मूर्तियों में इन दोनों समाजों का विश्वास था लेकिन विश्वास मात्र से मालिकाना हक नहीं मिल जाता है।
2. जहां तक निर्माण कार्य से अपील आर्थी के पूजा के अधिकार में व्यवधान या हस्तक्षेप का प्रश्न है यह तर्क उचित प्रतीत नहीं होता है क्योंकि-
क. रिकॉर्ड के अनुसार यहां प्रतिवर्ष मेला लगाया जाता है।
ख. मेले में कई दुकानें लगती रही हैं।
ग. पर्वत के जंगली भाग में शिकार भी होते रहे हैं तथा
घ. यहां पुजारियों, संतरियों, मजदूरों आदि की नियुक्ति भी होती रही है।
अपील आर्थी यह साबित नहीं कर पाए हैं कि उनका पूजा का अधिकार किस प्रकार प्रतिकूलतया से प्रभावित हुआ है तथा मार्ग अधिकार में व्यवधान उत्पन्न हुआ है।
3. लेकिन अपील अर्थी का यह तर्क सही है कि तीर्थंकर के पद चिन्हों के स्थान पर नए पद चिन्ह बनाने से उनकी आस्था गत पूजा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है इसलिए इसे रोका जाना न्यायोचित है।
तदनुसार प्रिवी कौंसिल द्वारा अपील का निस्तारण किया गया अर्थात-
क. विवादग्रस्त संपत्ति को न्यास की संपत्ति नहीं माना गया,
ख. निर्माण कार्य को अवैध नहीं माना गया, तथा
ग. तीर्थंकर के पद चिन्हों को यथावत रखने का आदेश दिया गया।
विधि के सिद्धांत
इस मामले में प्रिवी कौंसिल द्वारा विधि के निम्नांकित सिद्धांत प्रतिपादित किए गए-
1. पर्वत पर निर्माण कार्य कराने तथा संतरियों व सेवकों की नियुक्ति से पूजा का अधिकार प्रतिकूलतया प्रभावित नहीं होता है।
2. मूर्तियों के पद चिन्हों में परिवर्तन से अर्थात मूर्तियों के स्वरूप में परिवर्तन से आस्था गत पूजा का अधिकार प्रतिकूलतया प्रभावित हो सकता है।
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