Shri Sinha Ramanuja vs Ramanuja | श्री सिन्हा रामानुजा बनाम रामानुजा

Shri Sinha Ramanuja vs Ramanuja |  श्री सिन्हा रामानुजा बनाम रामानुजा
भूमिका
यह मामला सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 की धारा 9 एवं धारा 100 से संबंधित है इसमें उच्चतम न्यायालय के समक्ष सिविल प्रकृति के वाद के निर्धारण तथा तथ्य संबंधी मुद्दे पर अपीलीय न्यायालय की शक्तियों का प्रश्न अंतर्वलित था।
तथ्य
मामले के तथ्य संक्षेप में इस प्रकार हैं तिरूनेल वैली जिले में अलवर तिरु नगरी में भगवान विष्णु का एक अत्यंत प्राचीन मंदिर है इस मंदिर को आदिनाथ अलवर मंदिर के नाम से जाना जाता है कालांतर में इस मंदिर के चारों तरफ छोटे-मोटे 20 मंदिर और बन गए इनमें से तीन मंदिर भगवान विष्णु के मंदिर में और शेष बाहर बनाए गए विशेष अवसरों पर इन मंदिरों की मूर्तियां एक दूसरे मंदिर में लाई ले जाए जाती थी इसी दौरान पुजारियों के बीच पूजा की प्रधानता तथा प्रशंसा पत्र की प्राप्ति को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया इस पर चेन्नई हिंदू धार्मिक संस्थान बोर्ड ने सन 1927 में प्राथमिकता का क्रम निर्धारित करते हुए एक सूची तैयार की जिसमें रामानुजाचारिया मंदिर के पुजारियों को अन्य पुजारियों की अपेक्षा निम्नांकित दिनों के लिए प्राथमिकता दी गई-
क.  सभी साधारण दिन तथा
ख. वैकासी मेले पर सातवां दिन।
बोर्ड के इस विनिश्चय को सन् 1933 में चुनौती देते हुए मुंसिफ न्यायालय में एक वाद प्रस्तुत किया गया तथा सन 1941 में एक दूसरा वाद दायर किया गया विचारण न्यायालय द्वारा दोनों वादों को समेकित कर डिक्री कर दिया गया अपीलीय न्यायालय द्वारा उक्त निर्णय को अपास्त करते हुए यह कहा गया कि रामानुजाचार्य मंदिर के पुजारी व न्यासी तथा विष्णु मंदिर के पुजारी व न्यासी अलग अलग थे और चूंकि मंदिरों के अधिकारी विष्णु मंदिर के अधिकारी नहीं थे इसलिए प्राथमिकता का वाद प्रस्तुत नहीं किया जा सकता था।
  उक्त निर्णय के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की गई जिसमें निचली अपीलीय न्यायालय के निर्णय को पलटते हुए विचारण न्यायालय के निर्णय की पुष्टि कर दी गई उच्च न्यायालय के उक्त निर्णय के विरुद्ध विशेष इजाजत से उच्चतम न्यायालय में अपील की गई।
निर्णय
अपील आर्थी की ओर से उच्चतम न्यायालय में यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि-
क.  वादी द्वारा प्राथमिकता तथा प्रशस्ति पत्र प्राप्त करने के अधिकार का दावा तब तक नहीं किया जा सकता जब तक यह साबित नहीं कर दिया जाता कि वह मुख्य मंदिर का अधिकारी है तथा ऐसा अधिकार पद से संबंधित है क्योंकि वादी केवल रामानुजाचार्य मंदिर का पुजारी या न्यासी होने के कारण अधिकारों की मांग करता है जो धारा 9 के अंतर्गत सिविल प्रकृति का वाद नहीं होने से संधारण योग्य नहीं है?
ख.  अपीलीय न्यायालय में कोई नया अभीवाक् नहीं किया जा सकता है और न न्यायालय द्वारा ऐसा कोई नया तथ्य निर्मित किया जा सकता है जो वाद में रहा ही नहीं हो।
प्रत्यर्थी की ओर से उत्तर में निम्नांकित तर्क प्रस्तुत किए गए-
1. वादी द्वारा कोई नया तर्क प्रस्तुत नहीं किया गया था जिला न्यायाधीश (प्रथम अपीलीय न्यायालय) का निष्कर्ष तथ्यों पर आधारित न होकर तथ्य एवं विधि के सम्मिलित प्रश्नों पर आधारित था।
2. जिला न्यायालय द्वारा उन बातों पर विचार नहीं किया गया जिनसे वादी की हैसियत निर्मित हुई थी।
उच्चतम न्यायालय द्वारा दोनों पक्षों के तर्कों पर गंभीरता से विचार करते हुए यह निष्कर्ष निकाला गया कि-
क. धार्मिक सत्कार या विशेषाधिकार को प्राप्त करने के अधिकार की घोषणा का वाद सिविल प्रकृति का वाद नहीं है।
ख.  किसी मंदिर में के पद से संबंधित वाद सिविल प्रकृति का वाद हो सकता है और उसके लिए सिविल न्यायालय में वाद लाया जा सकता है।
ग. किसी पद के साथ अधिकार कर्तव्य एवं दायित्व जुड़े रहते हैं जबकि भक्तों के कोई ऐसे अधिकार या कर्तव्य नहीं होते क्योंकि भक्त कोई पद नहीं है।
इस मामले में वादी की अभ्यर्थना रामानुजाचारिया मंदिर का पदाधिकारी एवं न्यासी होने की है वह मुख्य मंदिर में पदाधिकारी नहीं है और ने इस हैसियत से वाद लाया गया है इसलिए वह संधारण योग्य नहीं है।
उच्चतम न्यायालय द्वारा अपील आर्थी की अपील को स्वीकार करते हुए उच्च न्यायालय के निर्णय को उलट दिया गया।
विधि के सिद्धांत
इस मामले में विधि के निम्नांकित सिद्धांत प्रतिपादित किए गए हैं।
1. धार्मिक उत्सव, रीति-रिवाज आदि से जुड़े विचार सिविल प्रकृति के नहीं है वे सिविल प्रकृति के केवल तभी हो सकते हैं जब किसी पद से संबंधित हों।
2.उच्च न्यायालय द्वारा तथ्यों के प्रश्न पर द्वितीय अपील ग्राह्य नहीं की जा सकती है।
3. उच्च न्यायालय अपील में ऐसा कोई नया तथ्य स्वीकार नहीं कर सकता जो वाद में रहा ही नहीं है।

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