डीटी पट्टाभिरामा स्वामी बनाम एस. हनमैय्या

डीटी पट्टाभिरामा स्वामी बनाम एस. हनमैय्या
भूमिका
यह मामला सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 की धारा 100 से संबंधित है इसमें  उच्चतम न्यायालय के समक्ष द्वितीय अपील की ग्राहयता का प्रश्न अंतर वलित था।
तथ्य
मामले के तथ्य संक्षेप में इस प्रकार हैं इसमें वादी नरासरावपेट नामक स्थान में  स्थित मंदिर के देवता पट्टाभिरामा स्वामी है सन 1868 में बिहार के एक परिवार ने लगभग 12 एकड़ भूमि देवता को समर्पित की थी तथा एक न्यास का सृजन किया था कालांतर में वादी की भूमि पर काम करने वाले व्यक्तियों की मजदूरी के लिए न्यास की ओर से एक अनुबंध उन कार्य करने वाले व्यक्तियों के साथ जो इस मामले में प्रतिवादी संख्या 6 से लगाकर 23  तक है इस आशय  का किया गया कि वे तथाकथित भूमि अपने पास रखेंगे उन व्यक्तियों द्वारा उक्त भूमि का विक्रय कर दिया गया इस पर वादी-देवता की ओर से प्रतिवादी गण के विरुद्ध भूमि का कब्जा प्राप्त करने के लिए वाद दायर किया गया।
प्रतिवादी संख्या 1 लगायत 5 द्वारा उत्तर में यह कहा गया कि वे भूमि की वास्तविक क्रेता होने से उसके स्वामी है तथा वादी का उस पर कोई अधिकार नहीं है भूमि पर कब्जा भी उनका ही है विचारण न्यायालय गन्टूर द्वारा यह पाया गया कि वादग्रस्त भूमि बिहार के एक परिवार द्वारा देवता को समर्पित की गई थी वह भूमि उस पर काम करने वाले व्यक्तियों की सेवा के बदले सेवा काल तक के लिए दी गई थी इसलिए वह भूमि वादी की ही थी तथा उसी के अधिकार क्षेत्र में थी वादी का उस भूमि पर लगभग 12 वर्षों से कब्जा था प्रतिवादी संख्या 1 लगायत 5 द्वारा किया गया उसका क्रय अवैध था उक्त निर्णय के विरुद्ध जिला न्यायालय में अपील की गई जो खारिज की गई तथा विचारण न्यायालय के निर्णय की पुष्टि की गई।
  उक्त निर्णय के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की गई जो स्वीकार करते हुए वादी के वाद को खारिज कर दिया गया वादी द्वारा विशेष इजाजत से उच्चतम न्यायालय में यह अपील दायर की गई।
निर्णय
उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपील आर्थी की से यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि जिला न्यायालय द्वारा अपना निर्णय दस्तावेजी साक्ष्य, मौखिक साक्ष्य एवं परिस्थितियों के आधार पर दिया गया था वह निर्णय तथ्यों पर आधारित था इसलिए उस निर्णय को द्वितीय अपील में पलट कर उच्च न्यायालय ने सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 की 100 के अनुसार अपनी अधिकारिता से परे कार्य किया है।
प्रत्यर्थी की ओर से यह कहा गया कि उच्च न्यायालय का निर्णय विधि अनुसार था क्योंकि उसके द्वारा जिला न्यायाधीश की व्याख्या संबंधी गलतियों को सुधारा  गया था उच्च न्यायालय के समक्ष द्वितीय अपील में उठाया गया प्रश्न तथ्य का नहीं होकर विधि का था।
उच्चतम न्यायालय द्वारा दोनों पक्षों के तर्कों पर गंभीरता से विचार किया गया न्यायालय का निर्णय न्यायमूर्ति सुब्बाराव द्वारा सुनाया गया उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि-
क.  वादग्रस्त  संपत्ति बिहार के परिवार के पास सन 1906 तक रही थी।
ख. संपत्ति से संबंधित दस्तावेजों पर विश्वास नहीं किया जा सकता था। जिसमें विवाद ग्रस्त भूमि को  श्री पट्टाभिरामा स्वामी गुरु की भजन्त्रि इनाम के नाम से संबोधित किया गया था।
ग. केवल नाम से यह साबित नहीं होता है कि भूमि स्वामी गुरु की थी।
उच्च न्यायालय का उपरोक्त निष्कर्ष तथ्यात्मक था अर्थात तथ्यों पर आधारित था उच्च न्यायालय को द्वितीय अपील में तथ्यों पर विचार नहीं करना चाहिए था उसने तथ्यों पर विचार कर सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 की धारा 100 के विपरीत कार्य किया है।
परिणाम स्वरूप उच्चतम न्यायालय द्वारा-
क.  अपील आरती की अपील को सव्यय स्वीकार किया गया,
ख.   उच्च न्यायालय के निर्णय को पलट दिया गया तथा
ग.  जिला न्यायालय के निर्णय की पुष्टि की गई।
विधि के सिद्धांत
इस प्रकरण में उच्चतम न्यायालय द्वारा विधि के निम्नांकित सिद्धांत प्रतिपादित किए गए-
1. सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के अनुसार द्वितीय अपील में केवल विधि के प्रश्न (क्वेश्चन ऑफ ला) पर ही विचार किया जा सकता है तथ्य के प्रश्न (क्वेश्चन ऑफ फैक्ट) पर नहीं।
2. सुसंगत तथ्यों एवं साक्ष्य पर आधारित प्रथम अपीलीय न्यायालय के निर्णय को अपील में नहीं पलटा जा सकता।

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