Kesavananda Bharati Case | केशवानंद भारती बनाम स्टेट ऑफ केरल

केशवानंद भारती बनाम स्टेट ऑफ केरल
भूमिका
संवैधानिक दृष्टि से यह प्रकरण अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है इस प्रकरण में न्यायालय के समक्ष अनेक विचारणीय बिंदु थे जैसे-
1. संविधान के 24 में 25 व एवं 29 में संशोधन की विधि मान्यता का प्रश्न
2. अनुच्छेद 12 (2), 14, 19(1)(च), 25, 26, एवं 31 की  व्याख्या का प्रश्न
3. संसद की संविधान में संशोधन करने की शक्ति का प्रशन आदि
तथ्य
पेटीशनर केसवानंद भारती द्वारा केरल राज्य के विरुद्ध संविधान के अनुच्छेद 32 के अंतर्गत दिनांक 25 मार्च 1970 को एक याचिका संविधान के अनुच्छेद 14, 19(1)(च),25, 26, एवं31 के अंतर्गत प्रदत्त मूल अधिकारों के परिवर्तन हेतु प्रस्तुत की गई थी इसमें पेटीशनर की ओर से यह प्रार्थना की गई थी कि केरल लैंड एक्ट 1963 में सन 1969 में किए गए संशोधनों को असंवैधानिक शून्य एवं शक्तिबाधक घोषित किया जाए क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 14, 19(1)(च),25, 26, एवं 31 का अतिक्रमण करते हैं इस बीच संसद द्वारा निम्नांकित संविधान संशोधन अधिनियम पारित किए गए-
1. 24 वां संशोधन अधिनियम 1971
2. 25 वां संशोधन अधिनियम 1971
3. 29 वां संशोधन अधिनियम 1972
29 वें संशोधन द्वारा केरल लैंड रिफॉर्म्स एक्ट 1969 केरल लैंड रिफॉर्म्स एक्ट 1971 आदि को संविधान की नवी अनुसूची में सम्मिलित कर दिया गया है
   24 में संशोधन द्वारा संविधान के अनुच्छेद 368 में कुछ परिवर्तन करते हुए संसद को संविधान में कैसा भी संशोधन करने की शक्तियां प्रदान कर दी गई और ऐसे संशोधन को अनुच्छेद 13 (2) की परिधि से बाहर कर दिया गया।
जिसमें संशोधन द्वारा अनुच्छेद 31 के खंड (2) में प्रयुक्त शब्द प्रति कर के स्थान पर राशि प्रतिस्थापित कर दिया गया इन सभी संशोधनों को इस याचिका में चुनौती दी गई इस मामले में सुनवाई उच्चतम न्यायालय के 13 न्यायाधीशों की एक पूर्ण पीठ द्वारा की गई पिटिश नर की ओर से पैरवी विख्यात विधि वेता एन. ए. पालकी वाला द्वारा की गई पेटीशनर की ओर से उच्चतम न्यायालय के समक्ष मुख्य रूप से निम्नांकित तर्क प्रस्तुत किए गए-
1. संविधान के अनुच्छेद 368 के अंतर्गत प्रदत शक्तियों के प्रयोग में संसद द्वारा संविधान के भाग 3 में किसी प्रकार का ऐसा संशोधन नहीं किया जा सकता जिससे मूल अधिकार प्रतिकूलतया प्रभावित हो।
2. अनुच्छेद 368 के अंतर्गत प्रदत संसद की शक्तियां अत्यंत सीमित हैं इन शक्तियों के अंतर्गत संसद संविधान में संशोधन या परिवर्तन नहीं कर सकती है जिससे संविधान का आधारभूत ढांचा ही नष्ट हो जाए।
3. संसद की संविधान में संशोधन करने की शक्तियां अनुच्छेद 13 (2) के अध्यधीन हैं।
4. संविधान की प्रस्तावना संविधान का एक अंग है इसलिए संशोधन के समय उसे ध्यान में रखा जाना अपेक्षित है।
5. संविधान में संशोधन अनुच्छेद 13 (2) के अर्यातर्गत  विधि है इसलिए संसद द्वारा संविधान में ऐसा कोई संशोधन नहीं किया जा सकता है जो मूल अधिकारों का उल्लंघन या अतिक्रमण करने वाला हो।
6. संसद द्वारा अनुच्छेद 4, 169 अनुसूची 5 पैरा 7 और अनुसूची 6 के पैरा 27 के अनुसार संशोधन कर नागरिकों के अधिकारों को नहीं छीना जा सकता। 
7. संविधान के 29 में संशोधन द्वारा संविधान की अनेक महत्वपूर्ण विशेषताओं को नष्ट कर अनुच्छेद 31( ग) मे संसद एवं राज्य विधानमंडल दोनों को ब्लैक चार्टर प्रदान कर दिया गया आदि। 
जवाब में उत्तर दाता की ओर से निम्नांकित तर्क प्रस्तुत किए गए
1. संविधान के अनुच्छेद 368 की भाषा से यह स्पष्ट है कि इसमें संशोधन की शक्तियां एवं प्रक्रिया दोनों सन्निहित हैं। 
2. अनुच्छेद 369 के अंतर्गत संविधान संशोधन से अभिप्राय संविधान में किसी भी प्रकार के संशोधन से है। 
3. संविधान की प्रस्तावना संविधान का भाग नहीं है इसलिए संशोधन के समय उस पर ध्यान दिया जाना आवश्यक नहीं है। 
4. अनुच्छेद 13 में प्रयुक्त विधि शब्द में संवैधानिक विधि सम्मिलित नहीं है। 
5. संसद की संविधान में संशोधन करने की शक्तियां सीमित नहीं है उसे संशोधन की विस्तृत शक्तियां प्राप्त हैं। 
6. संविधान का 24 वां संशोधन संवैधानिक शक्तियों के भीतर रहकर ही किया गया है। 
7. संविधान में आधारभूत ढांचे जैसे शब्दों का कहीं प्रयोग नहीं किया गया है इसलिए न्यायालय के सामने ऐसे तर्क रखना अर्थहीन है। 
निर्णय-
इस मामले की सुनवाई उच्चतम न्यायालय की एक विशेष न्याय पीठ द्वारा की गई और निर्णय मुख्य न्यायाधीश सीकरी द्वारा सुनाया गया इस याचिका की सुनवाई के समय न्यायालय के सामने 6 रिट याचिकाओं और लंबित थी जिनमें संविधान के 24 वें 25 वें 29 वें संशोधनों की संवैधानिक ता को चुनौती दी गई थी न्यायालय ने अपना निर्णय निम्नानुसार उद् घोषित किया-
1. संविधान की प्रस्तावना संविधान का एक अभिन्न अंग है उसे अनुच्छेद 368 की परिधि से बाहर नहीं किया जा सकता। 
2. अनुच्छेद 13 (2)संविधान में पहले से ही विद्यमान हैं अर्थात 24 वें संशोधन के समय भी यह अनुच्छेद अस्तित्व में था इसलिए संसद द्वारा अनुच्छेद 368 के अंतर्गत ऐसा कोई संशोधन नहीं किया जा सकता है जिससे मूल अधिकार कम हो या छिन जाए इस परिप्रेक्ष्य में संविधान का 14 वां संशोधन विधि मान्य है क्योंकि इसमें  न तो कोई प्रतिकूल अधिकारों को कम किया गया है ने इससे संविधान के बुनियादी ढांचे पर कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। 
3. 25 वें संशोधन द्वारा शब्द प्रति कर के स्थान पर शब्द राशि शब्द पीड़ित व्यक्ति को दी जाने वाली राशि का युक्ति युक्त होना आवश्यक होगा। 
4. संविधान का 29 वां संशोधन जिसके द्वारा कुछ अधिनियम को संविधान की नवी अनुसूची में सम्मिलित किया गया है विधि मान्य है। 
5. संविधान के अनुच्छेद 168 में संविधान में संशोधन की शक्तियां एवं प्रक्रिया दोनों सम्मिलित हैं। 
6. संसद द्वारा संविधान में ऐसा कोई संशोधन या परिवर्तन नहीं किया जा सकता जिससे उसका आधारभूत ढांचा ही नष्ट हो जाए। 
इस प्रकार उच्चतम न्यायालय द्वारा सभी प्रश्नों का एक-एक करके समाधान किया गया। 
विधि का सिद्धांत
इस प्रकरण में उच्चतम न्यायालय द्वारा विधि के अनेक महत्वपूर्ण सिद्धांत प्रतिपादित किए गए हैं इसमें मुख्य मुख्य इस प्रकार हैं-
1. संविधान की प्रस्तावना संविधान का एक अभिन्न अंग है
2. संसद द्वारा संविधान में ऐसा कोई संशोधन या परिवर्तन नहीं किया जा सकता जिससे संविधान का आधारभूत ढांचा ही नष्ट हो जाए। 
3. संविधान के अनुच्छेद 368 में संशोधन की शक्तियां एवं प्रक्रिया दोनों  सन्निहित है। 
4. प्रति कर के रूप में दी जाने वाली राशि का युक्ति युक्त होना आवश्यक है। 
इस निर्णय द्वारा गोलकनाथ बनाम स्टेट ऑफ पंजाब के निर्णय को पलट दिया गया।

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