S M Zakati vs B M Borkar | एस. एम. जकाती बनाम बी. एम. बोरकर

 S M Zakati vs B M Borkar |  एस. एम. जकाती बनाम बी. एम. बोरकर
भूमिका
यह मामला सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 की धारा 53 आदेश 21 नियम 94 तथा हिंदू विधि के अंतर्गत पुत्र  के पवित्र कर्तव्य से संबंधित है।
तथ्य
संक्षेप में इस मामले के तथ्य इस प्रकार हैं एम. बी. जकाती नाम का एक व्यक्ति धारवाड़ कोआपरेटिव बैंक में प्रबंध निदेशक के पद पर कार्यरत था जब बैंक का समापन हुआ तब  परिसमापक ने जकाती को अपकरण का दोषी बताते हुए उसके विरुद्ध ₹15000 बकाया निकाले 21 अप्रैल 1942 को सहकारी विभाग के उप रजिस्ट्रार ने जकाती को उक्त राशि जमा कराने का आदेश दिया इसे निष्पादन हेतु कलेक्टर के पास भेजा गया कलेक्टर ने आदेश के निष्पादन में भू राजस्व कानून के अंतर्गत जकाती के मकान को कुर्क कर लिया 24 नवंबर 1942 को मकान की नीलामी का आदेश दिया गया 24 दिसंबर 1942 को इस आशय की घोषणा की गई तथा 2 फरवरी 1943 नीलामी की तारीख तय की गई 16 जनवरी 1943 को जकाती द्वारा नीलाम रोके जाने हेतु प्रार्थना की गई जिसे अस्वीकार कर दिया गया निर्धारित तिथि 2 फरवरी 1943 को मकान नीलाम किया गया प्रतिवादी एस. एम. बोटकर नहीं यह मकान खरीदा 23 फरवरी 1943 को उक्त विक्रय की पुष्टि की गई 10 फरवरी 1943 को  प्रत्यर्थी एस एम बोरकर ने यह मकान प्रत्यर्थी संख्या 2 लगायत 4 को बेच दिया।
  एसबी जकाती के एक पत्नी 2 पुत्र एवं दो पुत्रियां थी 15 जनवरी 1943 को जकाती के बड़े पुत्र कृष्णा जी द्वारा सिविल न्यायाधीश के न्यायालय में संयुक्त कुटुंब की संपत्ति के बंटवारे का एक वाद दायर किया गया तथा अपना हिस्सा अलग करने का अनुतोष चाहा गया वादी कृष्णा जी द्वारा यह कहा गया कि प्रत्यय अर्थी एसएम बोरकर द्वारा क्रय किए गए मकान से संयुक्त परिवार आबद्ध नहीं है मकान को कर्ता के अपकरण जैसे अवैध एवं अनैतिक कार्यों के लिए नहीं बेचा जा सकता मुंबई भू राजस्व अधिनियम की धारा 155 के अंतर्गत करता द्वारा केवल अपने हितों को ही बेचा जा सकता है वादी ने उक्त मकान में अपने चौथे हिस्से का दावा किया जकाती के छोटे पुत्र श्रीनिवास तथा उसकी माता ने वादी के अधिकार पर सहमति प्रकट की 1944 में कृष्णा जी की मृत्यु हो गई इस पर उसका भाई श्रीनिवास माधवराव जकाती (एस. एम. जकाती) वादी बना जो इस मामले में अपील आर्थी है।
सिविल न्यायालय ने यह निर्णय दिया की एम बी जकाती का दायित्व अनैतिक एवं अव्यवहारिक होने से वह उसके पुत्रों पर बाध्यकारी नहीं है संयुक्त परिवार की संपत्ति में 1/3 हिस्सा पुत्र का 1/3 हिस्सा माता का तथा 1/3 हिस्सा पिता का है उक्त निर्णय के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की गई अपीलीय न्यायालय ने सिविल न्यायालय के निर्णय को अपास्त करते हुए एमबी जकाती के ऋण को व्यवहारिक ठहराया और इसे संयुक्त परिवार पर आबद्ध कर माना।   उक्त   निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की गई।
निर्णय
उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपील आर्थी द्वारा निम्नांकित तर्क प्रस्तुत किए गए-
क.  एम. बी. जकाती द्वारा उप गत  ऋण अव्यवहारिक था जिसे चुकता करने में संयुक्त परिवार की संपत्ति का विक्रय नहीं किया जा सकता था।
ख.  यदि यह मान भी लिया जाए कि ऋण व्यवहारिक था तो भी बंटवारे का वाद दायर होते ही संयुक्त परिवार का विभाजन हो गया था ऐसी स्थिति में कर्ता (पिता) अपने पुत्रों का हिस्सा बेचने के लिए अयोग्य( डिसक्वालिफाइड) हो गया था।
ग.  मुंबई भू राजस्व अधिनियम की धारा 155 के अंतर्गत केवल पिता की संपत्ति को ही बेचा जा सकता था पुत्रों के हिस्सों को उसमें सम्मिलित नहीं किया जा सकता था।
दूसरी तरफ प्रत्यय अर्थी की ओर से यह तर्क दिया गया कि-
1. वादी ने यह बात अपने पिता के साथ दुरभिसंधि करके पेश किया है अर्थात मिलीभगत से किया है इसलिए चलने योग्य नहीं है।
2. बैंक के परिसमापक की प्रार्थना पर उप रजिस्ट्रार ने एम बी जकाती को अपकरण की राशि जमा कराने का आदेश दिया था एम. बी. जकाती इस राशि का भुगतान स्वयं की या परिवार की संपत्ति से करने के लिए आबद्ध था।
3. पिता के ऋण को चुकाना पुत्रों का पवित्र दायित्व है इसलिए अब पुत्रों द्वारा मकान के विक्रय को चुनौती नहीं दी जा सकती है।
4.  ऋण का संदाय न्यायालय के आदेश से किया जा रहा है जो वैधानिक है।
उच्चतम न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की पीठ द्वारा मामले की सुनवाई की गई दोनों पक्षों के तर्कों पर गंभीरता से विचार किया गया निर्णय न्यायाधीश कपूर द्वारा सुनाया गया अपील आर्थी की अपील को खारिज करते हुए न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि-
1. एम बी जकाती के अपकरण (कर्तव्य पालन में उपेक्षा) के कारण बैंक में उसके विरुद्ध ₹15000 बकाया निकाले गए थे जिसे वसूल करने का आदेश उप रजिस्ट्रार द्वारा दिया गया था यह ऋण अथवा बकाया अव्यवहारिक नहीं था इसे संयुक्त परिवार की संपत्ति से वसूल किया जा सकता था 'हेमराज बनाम खेमचंद' (ए. आई. आर. 194 पी. सी. 142) के मामले में दिए गए निर्णय से भी इस बात की पुष्टि होती है।
2. संयुक्त परिवार की अर्थात पैतृक संपत्ति में पुत्र पोत्र एवं प्रपोत्र का जन्मतः अधिकार होता है इस अधिकार के साथ-साथ उनका यह कर्तव्य भी होता है की वह अपने पिता के ऐसे ऋणों का चुका रा करें जो अनैतिक एवं अव्यवहारिक नहीं हो ऐसे ऋण के चुकाने के लिए पिता (कर्ता) द्वारा संयुक्त परिवार की संपत्ति का विक्रय किया जा सकता है ऋण दाता पुत्रों के हाथ में आई ऐसी संपत्ति से अपनेऋण की वसूली कर सकता है। ' सुद्धेश्वर मुखर्जी बनाम भुवनेश्वर प्रसाद' ( ए. आई. आर. 1954 एस. सी. 487) के मामले में इस बात की पुष्टि की जा चुकी है।
विधि के सिद्धांत
इस मामले में उच्च न्यायालय द्वारा विधि के निम्नांकित सिद्धांत प्रतिपादित किए गए-
1. पिता के ऐसे ऋणों को जो अनैतिक एवं अव्यवहारिक  नहीं हो चुकाने का पुत्रों का पवित्र दायित्व है यह दायित्व संयुक्त परिवार की संपत्ति के विभाजन से समाप्त नहीं हो जाता है।  विभाजन के बाद संपत्ति का केवल हस्तांतरण नहीं किया जा सकता।
2. अपकरण को अनैतिक एवं  अव्यवहारिक नहीं कहा जा सकता।
3. निष्पादन कार्यवाही में पुत्रों को पक्षकार बनाया जाना आवश्यक नहीं है।

Comments

Popular posts from this blog

भारतीय संविधान से संबंधित 100 महत्वपूर्ण प्रश्न उतर

100 Questions on Indian Constitution for UPSC 2020 Pre Exam

Atal Pension Yojana-(APY Chart) | अटल पेंशन योजना