Narayan Bhagwant Rao vs Gopal Vinayak | नारायण भगवंत राव बनाम गोपाल विनायक

Narayan Bhagwant Rao vs Gopal Vinayak | नारायण  भगवंत राव बनाम गोपाल विनायक
भूमिका
यह मामला संविधान के अनुच्छेद 133 तथा सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के आदेश 1  नियम 3 व 10 की व्याख्या से संबंधित है।
तथ्य
संक्षेप में मामले के तथ्य इस प्रकार है वादी  अपील आर्थी नारायण भगवंतराव गणपति महाराज का वंशज है गणपति महाराज की मृत्यु सन 1701 में 98 बरस की आयु में हो गई थी जब गणपति महाराज की आयु 72 वर्ष की थी तब उन्हें स्वपन में यह कहा गया कि ताम्रपर्णी नदी में उन्हें 'वेंकटेश बालाजी' की प्रतिमा मिलेगी। तदनुसार उन्हें वहां बालाजी की मूर्ति मिली जिसे उन्होंने जुनार (जिला पूना) स्थित अपने मकान में स्थापित किया। गणपति महाराज की मृत्यु के बाद उनके जेष्ठ पुत्र मिम्माया को  भी स्वप्न में यह कहा गया कि जुन्नार गांव नष्ट हो जाएगा इसलिए मूर्ति को वहां से हटा लिया जाए इस पर मीमाया की मृत्यु के बाद उसके पुत्र बापा जी बूबा ने पेशवा से नासिक में गोदावरी नदी के किनारे भूमि प्राप्त कर वहां मंदिर का निर्माण करवाया और उसमें मूर्ति की स्थापना की इस मंदिर में होलकर एवं सिंधिया का भी रुपया लगा था सन 1774 में पारिवारिक विवाद के कारण एक विलेख निष्पादित किया गया जिसके अनुसार प्रबंध का कार्य जेष्ठ पुत्र को सौंपा गया एवं पुत्र के वंशज की देखरेख का कार्य भी दिया गया सन 1800 में दोबारा पारिवारिक विवाद उत्पन्न हुआ जिस पर एक अन्य दस्तावेज लिखा गया जिसमें हर पुत्र के वंशज को रोकड़ रुपया जीवन निर्वाह हेतु देने की वजह कुछ गांवों को उन में बांट दिया गया।
सन 1852  में ब्रिटिश सरकार द्वारा इनाम कमीशन की नियुक्ति की गई जिसके अनुसार जागीरदारों एवं इनामदारों को उस दस्तावेज को साबित करने का आदेश दिया गया जिससे उनको इनाम मिला हो सहायक इनाम आयुक्त ने इस मामले में गांव को व्यक्तिगत इनाम के रूप में अभिलेख में दर्ज किया था तत्कालीन संस्थानिक दामोदर महाराज ने इनाम आयुक्त को अपील करते हुए प्रार्थना की थी कि मंदिर के गांव व्यक्तिगत इनाम के रूप में नहीं थे बल्कि देवस्थान के रूप में थे इसलिए उन्हें तद अनुरूप दर्ज किया जाए व्यक्तिगत इनाम का अस्तित्व तब तक रहता है जब तक परिवार रहता है जबकि देवस्थान इनाम स्थाई होता है इनाम आयुक्त ने अपील स्वीकार करते हुए गांवों को देवस्थान इनाम के रूप में दर्ज करने का आदेश दिया दामोदर महाराज की सन 1885 में मृत्यु हो गई उनकी मृत्यु के बाद उनका पुत्र कृष्णराव महाराज तथा उनके बाद उनका पौत्र नारायण भगवंतराव सन 1921 में उत्तराधिकारी बना।
सन 1942 में गणपति महाराज की पुत्री नागु भाई के वंशज नें जो इस मामले में प्रतिवादी है जिला न्यायालय में एक प्रार्थना पत्र इस आशय का पेश किया कि पूर्व एवं धार्मिक न्यास अधिनियम 1920 के अंतर्गत अपील आर्थी को यह निर्देश दिया जाए कि वह संपत्तियों का पूर्ण विवरण पेश करें अपील आर्थी की ओर से उत्तर में यह कहा गया कि कोई सार्वजनिक न्यास नहीं होने से वह संपत्तियों का विवरण पेश करने के लिए आबद्ध नहीं है।  वादी अपील आर्थी दवारा नासिक के सिविल न्यायालय में प्रतिवादी गणों के विरुद्ध निम्नांकित घोषणा हेतु वाद दायर किया गया-
क.  यह की वेंकटेश बालाजी मूर्ति तथा वेंकटेश बालाजी संस्थान विधित न्यास नहीं है।
ख.  यह की यदि उन्हें विधितः न्यास माना जाता है तो वे सार्वजनिक न्यास नहीं है।
ग.  यह कि प्रतिवादी गण को मंदिर के देवता या संस्थान की संपत्ति का विवरण पूछने का कोई अधिकार नहीं है।
वादी का वाद खारिज किया गया तथा उसके विरुद्ध की गई अपील भी खारिज की गई मामला अंततः अधीनस्थ न्यायालयों से    निर्णित होते होते उच्चतम न्यायालय में पहुंचा।
निर्णय
उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपील आर्थी द्वारा निम्नांकित तर्क प्रस्तुत किए गए-
1.अधीनस्थ न्यायालयों के तथ्यों पर आधारित एक ही निष्कर्ष में उच्चतम न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता।
2. दस्तावेजों की सही व्याख्या कर निकाला गया निष्कर्ष भी "तथ्यों पर आधारित निष्कर्ष"ही माना जाता है।
3. देवता में संपत्ति को निजी घोषित कराने के मामले में देवता एक आवश्यक पक्षकार है यदि देवता को पक्षकार नहीं बनाया जाता है तो निर्णय उस पर आबद्कर नहीं होता है।

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