Section 23 Arbitration and Conciliation Act, 1996
Section 23 Arbitration and Conciliation Act, 1996:
Statement of claim and defence.—
(1) Within the period of time agreed upon by the parties or determined by the arbitral tribunal, the claimant shall state the facts supporting his claim, the points at issue and the relief or remedy sought, and the respondent shall state his defence in respect of these particulars, unless the parties have otherwise agreed as to the required elements of those statements.
(2) The parties may submit with their statements all documents they consider to be relevant or may add a reference to the documents or other evidence they will submit.
(3) Unless otherwise agreed by the parties, either party may amend or supplement his claim or defence during the course of the arbitral proceedings, unless the arbitral tribunal considers it inappropriate to allow the amendment or supplement having regard to the delay in making it.
Supreme Court of India Important Judgments And Leading Case Law Related to Section 23 Arbitration and Conciliation Act, 1996:
M/S. Silpi Industries vs Kerala State Road Transport on 29 June, 2021
Visa International Ltd vs Continental Resources (Usa)Ltd on 2 December, 2008
Dakshin Haryana Bijli Vitran vs M/S Navigant Technologies Pvt. on 2 March, 2021
माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 23 का विवरण :
दावा और प्रतिरक्षा के कथन-(1) पक्षकारों द्वारा करार पाई गई या माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा अवधारित की गई कालावधि के भीतर, दावेदार, अपने दावे का समर्थन करने वाले तथ्यों, विवाद्यक मुद्दों और मांगे गए अनुतोष या उपचार का कथन करेगा और प्रत्यर्थी, इन विशिष्टियों के संबंध में अपनी प्रतिरक्षा का कथन करेगा जब तक कि पक्षकारों ने उन कथनों के अपेक्षित तत्वों के बारे में अन्यथा करार न किया हो ।
(2) पक्षकार अपने कथनों के साथ ऐसे सभी दस्तावेजों को, जिन्हें वे सुसंगत समझें, प्रस्तुत कर सकेंगे या उन दस्तावेजों अथवा अन्य साक्ष्य का जो वे प्रस्तुत करेंगे, कोई संदर्भ दे सकेंगे ।
(3) जब तक कि पक्षकारों द्वारा अन्यथा करार न किया गया हो, कोई भी पक्षकार, माध्यस्थम् कार्यवाहियों के दौरान अपने दावे या प्रतिरक्षा को संशोधित या अनुपूरित कर सकेगा जब तक कि माध्यस्थम् अधिकरण उसे करने में विलंब को ध्यान में रखते हुए संशोधन या अनुपूर्ति को अनुज्ञात करना उचित न समझे ।
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