Section 2 Arbitration and Conciliation Act, 1996
Section 2 Arbitration and Conciliation Act, 1996:
Definitions. —
(1) In this Part, unless the context otherwise requires,—
(a) “arbitration” means any arbitration whether or not administered by permanent arbitral institution;
(b) “arbitration agreement” means an agreement referred to in section 7;
(c) “arbitral award” includes an interim award;
(d) “arbitral tribunal” means a sole arbitrator or a panel of arbitrators;
(e) “Court” means the principal Civil Court of original jurisdiction in a district, and includes the High Court in exercise of its ordinary original civil jurisdiction, having jurisdiction to decide the questions forming the subject-matter of the arbitration if the same had been the subject-matter of a suit, but does not include any civil court of a grade inferior to such principal Civil Court, or any Court of Small Causes;
(f) “international commercial arbitration” means an arbitration relating to disputes arising out of legal relationships, whether contractual or not, considered as commercial under the law in force in India and where at least one of the parties is—
(i) an individual who is a national of, or habitually resident in, any country other than India; or
(ii) a body corporate which is incorporated in any country other than India; or
(iii) a company or an association or a body of individuals whose central management and control is exercised in any country other than India; or
(iv) the Government of a foreign country;
(g) “legal representative” means a person who in law represents the estate of a deceased person, and includes any person who intermeddles with the estate of the deceased, and, where a party acts in a representative character, the person on whom the estate devolves on the death of the party so acting;
(h) “party” means a party to an arbitration agreement.
Scope
(2) This Part shall apply where the place of arbitration is in India.
(3) This Part shall not affect any other law for the time being in force by virtue of which certain disputes may not be submitted to arbitration.
(4) This Part except sub-section (1) of section 40, sections 41 and 43 shall apply to every arbitration under any other enactment for the time being in force, as if the arbitration were pursuant to an arbitration agreement and as if that other enactment were an arbitration agreement, except in so far as the provisions of this Part are inconsistent with that other enactment or with any rules made thereunder.
(5) Subject to the provisions of sub-section (4), and save in so far as is otherwise provided by any law for the time being in force or in any agreement in force between India and any other country or countries, this Part shall apply to all arbitrations and to all proceedings relating thereto. Construction of references
(6) Where this Part, except section 28, leaves the parties free to determine a certain issue, that freedom shall include the right of the parties to authorise any person including an institution, to determine that issue.
(7) An arbitral award made under this Part shall be considered as a domestic award.
(8) Where this Part—
(a) refers to the fact that the parties have agreed or that they may agree, or
(b) in any other way refers to an agreement of the parties, that agreement shall include any arbitration rules referred to in that agreement.
(9) Where this Part, other than clause (a) of section 25 or clause (a) of sub- section (2) of section 32, refers to a claim, it shall also apply to a counter-claim, and where it refers to a defence, it shall also apply to a defence to that counter-claim.
Supreme Court of India Important Judgments And Leading Case Law Related to Section 2 Arbitration and Conciliation Act, 1996:
Barminco Indian Underground vs Hindustan Zinc Limited on 20 July, 2020
176Th Report On The Arbitration And Conciliation (Amendment) Bill,
Smt. Richa Bisht & Others vs Union Of India And Others on 11 March, 2020
Chennai Container Terminal Pvt. vs Union Of India (Uoi), Rep. By on 9 March, 2007
Sanjay Suryakant Mhaske And vs Zilla Parishad, Jalna on 11 June, 2015
माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 2 का विवरण :
परिभाषाएं-(1) इस भाग में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो,-
(क) माध्यस्थम्" से कोई माध्यस्थम् अभिप्रेत है चाहे जो स्थायी माध्यस्थम् संस्था द्वारा किया गया हो या न किया गया हो
(ख) माध्यस्थम् करार" से धारा 7 में निर्दिष्ट कोई करार अभिप्रेत है ;
(ग) माध्यस्थम् पंचाट" के अंतर्गत कोई अंतरिम पंचाट भी है ;
(घ) माध्यस्थम् अधिकरण" से एक मात्र मध्यस्थ या मध्यस्थों का कोई पैनल अभिप्रेत है ;
(ङ) न्यायालय" से किसी जिले में आरंभिक अधिकारिता वाला प्रधान सिविल न्यायालय अभिप्रेत है और इसके अन्तर्गत अपनी मामूली आरंभिक सिविल अधिकारिता का प्रयोग करने वाला उच्च न्यायालय भी है, जो माध्यस्थम् की विषय-वस्तु होने वाले प्रश्नों का, यदि वे वाद की विषय-वस्तु होते तो, विनिश्चय करने की अधिकारिता रखता, किन्तु ऐसे प्रधान सिविल न्यायालय से अवर श्रेणी का कोई सिविल न्यायालय या कोई लघुवाद न्यायालय इसके अन्तर्गत नहीं आता है ;
(च) अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक माध्यस्थम्" से ऐसे विवादों से संबंधित कोई माध्यस्थम् अभिप्रेत है जो ऐसे विधिक संबंधों से, चाहे वे संविदात्मक हों या न हों जो भारत में प्रवृत्त विधि के अधीन वाणिज्यिक समझे गए हों, उद्भूत हों और जहां पक्षकारों में से कम से कम एक-
(i) ऐसा कोई व्यष्टि है जो भारत से भिन्न किसी देश का राष्ट्रिक है या उसका अभ्यासतः निवासी है ; या
(ii) ऐसा एक निगमित निकाय है, जो भारत से भिन्न किसी देश में निगमित है ; या
(iii) ऐसी कोई कंपनी या संगम या व्यष्टि निकाय है जिसका केन्द्रीय प्रबंध और नियंत्रण भारत से भिन्न किसी देश से किया जाता है ; या
(iv) कोई विदेश की सरकार है ;
(छ) विधिक प्रतिनिधि" से वह व्यक्ति अभिप्रेत है जो किसी मृत व्यक्ति की सम्पदा का विधि की दृष्टि में प्रतिनिधित्व करता है, और ऐसा कोई व्यक्ति, जो मृतक की सम्पदा में दखलन्दाजी करता है, और, जहां कोई पक्षकार प्रतिनिधि की हैसियत में कार्य करता है वहां वह व्यक्ति जिसे इस प्रकार कार्य करने वाले पक्षकार की मृत्यु हो जाने पर सम्पदा न्यायगत होती है, भी इसके अंतर्गत आता है ;
(ज) पक्षकार" से माध्यस्थम् करार का कोई पक्षकार अभिप्रेत है ।
(2) परिधि-यह भाग वहां लागू होगा जहां माध्यस्थम् का स्थान भारत में है ।
(3) यह भाग तत्समय प्रवृत्त ऐसी किसी अन्य विधि पर प्रभाव नहीं डालेगा, जिसके आधार पर कतिपय विवाद माध्यस्थम् के लिए निवेदित न किए जा सकेंगे ।
(4) यह भाग धारा 40 की उपधारा (1), धारा 41 और धारा 43 को छोड़कर तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य अधिनियमिति के अधीन प्रत्येक माध्यस्थम् को इस प्रकार लागू होगा मानो कि वह माध्यस्थम् किसी माध्यस्थम् करार के अनुसरण में था और मानो कि उक्त अन्य अधिनियमिति कोई माध्यस्थम् करार थी, सिवाय इसके कि जहां तक इस भाग के उपबंध उस अन्य अधिनियमिति या उसके अधीन बनाए गए किन्हीं नियमों से असंगत है ।
(5) उपधारा (4) के उपबंधों के अधीन रहते हुए और जहां तक तत्समय प्रवृत्त किसी विधि द्वारा या भारत और किसी अन्य देश या देशों के बीच किसी करार में अन्यथा उपबंधित है, उसके सिवाय, यह भाग सभी माध्यस्थमों को और उनसे संबंधित सभी कार्यवाहियों को लागू होगा ।
(6) निर्देशों का अर्थान्वयन-जहां इस भाग में, धारा 28 को छोड़कर, पक्षकार कतिपय विवाद्यकों को अवधारित करने के लिए स्वतन्त्र है वहां उस स्वतंत्रता में पक्षकारों का उस विवाद को अवधारित करने के लिए किसी व्यक्ति को जिनके अंतर्गत कोई संस्था भी है, प्राधिकृत करने का अधिकार सम्मिलित होगा ।
(7) इस भाग के अधीन किया गया माध्यस्थम् पंचाट, देशी पंचाट समझा जाएगा ।
(8) जहां इस भाग में-
(क) इस तथ्य का निर्देश किया गया है कि पक्षकारों में करार पाया गया है अथवा यह कि वे करार कर सकते हैं ; य
(ख) किसी अन्य प्रकार से पक्षकारों के किसी करार का निर्देश किया गया है ,वहां उस करार के अन्तर्गत उस करार में निर्दिष्ट कोई माध्यस्थम् नियम भी होंगे ।
(9) जहां इस भाग में, धारा 25 के खंड (क) या धारा 32 की उपधारा (2) के खंड (क) से भिन्न, किसी दावे के प्रति निर्देश किया गया है, वहां यह किसी प्रतिदावे को भी लागू होगा और जहां यह किसी प्रतिरक्षा के प्रति निर्देश करता है, वहां यह उस प्रतिदावे के किसी प्रतिरक्षा को भी लागू होगा ।
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