अपराधों के लिए दोष सिद्धि के संबंध में भारत के संविधान के अनुच्छेद 20 के संरक्षण

प्रश्न- अपराधों के लिए दोष सिद्धि के संबंध में भारत के संविधान के अनुच्छेद 20 के अंतर्गत प्रदत संरक्षण की विवेचना कीजिये?
उत्तर- संविधान के अनुच्छेद 20 के अंतर्गत अपराधों के लिए दोष सिद्धि के संबंध में अभियुक्त को मुख्य रूप से तीन संरक्षण प्रदान किए गए हैं-
1. कार्योत्तर विधियों से संरक्षण
2. दोहरे दंड से संरक्षण
3. स्व- अभिशंसन से संरक्षण


1. कार्योत्तर विधियों से संरक्षण- संविधान के अनुच्छेद 20 में यह कहा गया है कि कोई व्यक्ति अपराध के लिए तब तक सिद्ध दोष नहीं ठहराया जाएगा जब तक कि उसने ऐसा कुछ करने के समय जो अपराध के रूप में आरोपित है किसी प्रकृत विधि का अतिक्रमण नहीं किया है या उससे अधिक शास्ति का भागी नहीं होगा जो उस अपराध के लिए किए जाने के समय प्रवृत्त विधि के अधीन अधिरोपित की जा सकती थी।
अभिप्राय यह हुआ कि किसी भी व्यक्ति को केवल ऐसे कार्य के लिए दंडित किया जा सकता है जो उसे किए जाने के समय प्रवृत्त  किसी विधि के अधीन दंडनीय अपराध हो। यदि कार्य के लिए किए जाने के समय वह किसी विधि के अधीन दंडनीय अपराध नहीं है तो बाद में कोई विधि बनाकर उसे दंडनीय नहीं बनाया जा सकता है। इसका सीधा सा अर्थ यह हुआ है कि किसी भी दंडिक विधि को भूतलक्षी प्रभाव से लागू नहीं किया जा सकता है।
इस संबंध में परीद बनाम नीलांबरन (एआईआर 1987 केरल 155) का एक अच्छा प्रकरण है इसमें पहले पंचायत कर नहीं देना अपराध नहीं था बाद में एक विधि बनाकर उसे अपराध घोषित कर दिया गया तथा उसे भूतलक्षी प्रभाव से लागू कर दिया गया। केरल उच्च न्यायालय ने इसे असंवैधानिक घोषित करते हुए कहा कि बाद में कोई विधि बना कर किसी पूर्ववर्ती कार्य को अपराध घोषित नहीं किया जा सकता है।
इसी प्रकार किसी भी व्यक्ति को किसी अपराध के लिए केवल उतने दंड से दंडित किया जा सकता है जो अपराध कार्य किए जाने के समय विहित हो बाद में कोई विधि बनाकर पूर्ववर्ती अपराध के लिए दंड में वृद्धि नहीं की जा सकती है इस विषय पर केदारनाथ बाजोरिया बनाम स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल (एआईआर 1953 एससी 404) का एक महत्वपूर्ण प्रकरण है इसमें अभियुक्त द्वारा सन 1947 में कोई अपराध कार्य किया गया था उस समय उस अपराध के लिए कारावास या अर्थदंड या दोनों दंड दिए जा सकते थे। सन 1949 में एक संशोधन द्वारा उस दंड में वृद्धि कर दी गई। उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि संशोधित बढ़े हुए दंड को सन 1947 में कारित अपराध पर लागू नहीं किया जा सकता है।

2. दोहरे दंड से संरक्षण संविधान के अनुच्छेद 20(2) में यह उपबंधित किया गया है कि किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक अभियोजित और दंडित नहीं किया जाएगा यह व्यवस्था आंगला विधि के इस सूत्र पर आधारित है -  (Namo Debet  Vis  vezari)  अर्थात किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दो बार अभियोजित और दंडित नहीं किया जा सकता है। अमेरिका के संविधान में भी इसी प्रकार की व्यवस्था मिलती है। अमेरिकन संविधान के अनुसार किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दोबारा खतरे में नहीं डाला जा सकता है इसे( double jeopardy) का सिद्धांत भी कहा जाता है। इसका सीधा सा अभिप्रायः यह हुआ कि किसी अपराध के लिए एक बार अभियोजन चला कर अभियुक्त को दोषमुक्त या दोष सिद्ध कर दिया गया है तो पश्चात वर्ती प्रक्रम पर उसी अपराध के लिए अभियुक्त को न तो दोबारा अभियोजित किया जा सकता है और ना ही दंडित।
कलावती बनाम स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश ( ए आई आर 1953 एस सी 131 के मामले में अनुच्छेद 20(2) की प्रयोज्यता के लिए तीन बातें आवश्यक बताई गई है-
1. व्यक्ति का अभियुक्त होना
2. अभियोजन या कार्यवाही का किसी न्यायालय या न्यायिक अभिकरण (न्यायाधिकरण) के समक्ष चलना एवं उसका न्यायिक प्रकृति का होना
3. अभियोजन या कार्यवाही का किसी ऐसे अपराध के लिए होना जिसके लिए दंड का प्रावधान हो।
इस संबंध में मकबूल हसन बनाम स्टेट ऑफ़  बंबई (ए आई आर 1953 एस सी 325) का एक अच्छा प्रकरण है इसमें अपीलार्थी भारत में चोरी से कुछ सोना लाया था जिसकी कस्टम अधिकारियों के सामने घोषणा नहीं की गई कस्टम अधिकारियों ने सी कस्टम एक्ट के अंतर्गत उस सोने को जप्त कर लिया बाद में उसे विरुद्ध विदेशी विनियम विनियमन अधिनियम के अंतर्गत अभियोजन द्वारा सोना जब्त करके एक बार आयोजित एवं दंडित कर दिया गया है इसलिए अब से दोबारा अभियोजित एवं दंडित नहीं किया जा सकता है लेकिन उच्चतम न्यायालय ने इस तर्क को नहीं माना क्योंकि-
1. कस्टम अधिकारी न तो न्यायालय था और ना ही न्यायाधिकरण, तथा
2. न ही कस्टम अधिकारी की कार्यवाही न्यायिक प्रकृति की थी।

3. स्व अभिसंशन से संरक्षण- संविधान के अनुच्छेद 20(3) यह व्यवस्था करता है कि किसी अपराध के लिए अभियुक्त व्यक्ति को स्वयं अपने विरुद्ध साक्षी होने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा। विधिशास्त्र का यह सुस्थापित सिद्धांत है कि किसी व्यक्ति को तब तक निर्दोष माना जाएगा जब तक कि उसके विरुद्ध आरोप सिद्ध नहीं कर दिया जाता। इसका अभिप्राय अभियुक्त को कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं होती इसी सिद्धांत पर यह नियम बना है कि अभियुक्त को अपने ही विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है।
इसके लिए निम्नांकित तीन बातें आवश्यक है-
1.कस्टम अधिकारी न तो न्यायालय था और ना ही न्यायाधिकरण, तथा
2. व्यक्ति पर किसी अपराध का आरोप हो
3. उसे अपने ही विरुद्ध साक्षी बनाने के लिए विवश किया गया हो
4. उसे अपने ही विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए विवश किया गया हो। इस संबंध में नंदिनी सतपथी बनाम पी एल दानी (ए आई आर 1978 एस सी 1025) का मामला अवलोकन योग्य है। इसमें उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि यदि पूछे गए प्रश्नों की प्रकृति में स्वअभिशंसन का तत्व स्पष्ट परिलक्षित होता है तो अभियुक्त को अनुच्छेद 20 का संरक्षण प्राप्त होगा।
लेकिन मिस्टर एक्स बनाम मिसेज जेड( ए आई आर 2002 दिल्ली 217) के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि विवाह- विच्छेद के मामलों में जहां पति पत्नी ने एक दूसरे पर व्यभिचार के आरोप लगाए हो वहां पत्नी के गर्भपात स्लाइड के डी. एन. ए. टेस्ट पर अनुच्छेद 20(3) के उपबंध लागू नहीं होंगे क्योंकि उसमें न तो पत्नी के किसी अंग का परीक्षण होना है और ना ही पत्नी को परीक्षण के लिए कहीं उपस्थित होना है।

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